स्कूलों से देश बनता है मंदिरों से नहीं, चाइना घूमने गये व्यक्ति ने ऐसा क्यों बोला

 एक व्यक्ति चीन की यात्रा करता है, जहाँ वह गगनचुंबी इमारतों, तीव्र गति वाली रेलगाड़ियों, और तकनीकी प्रगति को देखकर चकित होता है। वापस आकर वह एक ऐसा बयान देता है जो हमारी सामूहिक चेतना को झकझोर देता है: 'देश का निर्माण स्कूलों से होता है, मंदिरों से नहीं।'  यह सिर्फ एक तुलनात्मक टिप्पणी नहीं है। यह एक गहन दार्शनिक प्रश्न है जो मानवता की दो सबसे मौलिक और विपरीत प्रवृत्तियों के बीच खड़ा है—तर्क की खोज और अर्थ की तलाश। यह प्रश्न केवल भारत या चीन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हर समाज का शाश्वत द्वंद्व है जो अपने वर्तमान पर भविष्य का सपना देखता है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि हम अपनी राष्ट्रीय ऊर्जा कहाँ लगा रहे हैं: हमारे मस्तिष्क के विकास में या हमारी आत्मा की शांति में?

ज्ञान की अंतर्निहित प्यास: मनुष्य और स्कूल

मनुष्य की मूलभूत प्रकृति जिज्ञासा है। जन्म से ही हम 'क्यों' और 'कैसे' पूछते हैं। यही जिज्ञासा हमें आग जलाने से लेकर चाँद पर पहुँचने तक ले गई है। स्कूल इसी जिज्ञासा का संस्थागत रूप हैं। यह वह स्थान है जहाँ हम व्यवस्थित रूप से तर्क, विज्ञान, इतिहास और कला सीखते हैं—यानी वह ज्ञान जो हमें न केवल भौतिक दुनिया को समझने में मदद करता है, बल्कि उसे अपनी इच्छानुसार बदलने की क्षमता भी प्रदान करता है। 

एक राष्ट्र के निर्माण में स्कूलों की भूमिका अनिवार्य होती है। ये व्यक्ति को कौशल सिखाते हैं, जो बाजार और अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। ये अंधे विश्वासों के बजाय आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देते हैं, जो लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवश्यक होती है। एक शिक्षित नागरिक बेहतर स्वास्थ्य, बेहतर कृषि, बेहतर शासन और बेहतर नवाचार की मांग करता है। जब किसी राष्ट्र की नींव उसके इंजीनियरों, डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और शिक्षकों द्वारा रखी जाती है, तब वह राष्ट्र मजबूत और आत्मनिर्भर बनता है।

चीन के विकास को देखने वाला व्यक्ति शायद यही अनुभव कर रहा था: एक ऐसा राष्ट्र जिसने अपनी अपार ऊर्जा को साक्षरता, तकनीकी शिक्षा और बुनियादी ढांचे के विकास पर केंद्रित किया। उस यात्री के लिए, स्कूलों की कतारें शायद प्रगति का ठोस प्रतीक थीं—यह संदेश कि भौतिक उन्नति के लिए 'आधुनिक दिमाग' का निर्माण सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। यह मानवीय प्रवृत्ति होती है कि हम परिणाम देखते हैं और उन परिणामों को प्राप्त करने वाली प्रक्रिया का महत्त्व बताते हैं। स्कूल सफलता के लिए मानव प्रयास की कहानी दर्शाते हैं।


"अर्थ की आवश्यकता: मनुष्य और मंदिर  

लेकिन, मनुष्य केवल एक तार्किक प्राणी नहीं है। हम जटिल भावनाएँ और गहरे प्रश्नों के साथ जीवन बिताते हैं। मृत्यु का भय, जीवन का उद्देश्य, दुःख का सामना—ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर भौतिक विज्ञान की प्रयोगशालाएँ नहीं दे सकतीं। इसी संदर्भ में मंदिर (धर्म, आस्था, या आध्यात्मिक केंद्र) का महत्व उभरता है, जो मानवता की दूसरी मूलभूत आवश्यकता—अर्थ की खोज को पूरा करता है।  

मंदिर केवल ईंट और गारे से बने ढाँचे नहीं हैं; वे सदियों पुरानी सामुदायिक भावना, नैतिक आचार संहिता और भावनात्मक सहारे के केंद्र रहे हैं। ये हमें सिखाते हैं कि समाज में कैसे रहना है, दूसरों के प्रति दयालु कैसे होना है, और कठिन समय में आशा कैसे बनाए रखनी है। यह वह ढाँचा है जो हमारी आत्माओं को जोड़ता है और हमें एक साझा पहचान प्रदान करता है। यही मानव की स्वाभाविक प्रकृति है जो उसे अकेलेपन और शून्यता से बचाती है।  

यदि राष्ट्र-निर्माण का अर्थ केवल सड़कों और पुलों का निर्माण हो, तो स्कूल ही पर्याप्त हैं। लेकिन यदि राष्ट्र-निर्माण का मतलब एक न्यायपूर्ण, दयालु और सहिष्णु समाज बनाना है, तो हमें उन नैतिक मूल्यों की जरूरत होती है जो अक्सर धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षाओं से प्राप्त होते हैं। एक ऐसा देश जो तकनीकी रूप से उन्नत हो लेकिन जहाँ लोग एक-दूसरे को धोखा देते हों, जहाँ लालच ने नैतिकता को दबा दिया हो, वह खोखला होता है। मंदिर उस आंतरिक नैतिक कम्पास को बनाए रखने का प्रयास करते हैं।

संतुलन: सिर और हृदय का तालमेल  

जब यात्री यह कहते हैं कि देश स्कूलों से बनते हैं, तो वह अनजाने में एक चेतावनी दे रहे होते हैं: हमें अपनी प्राथमिकताओं को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है। यह बयान मंदिरों की उपयोगिता को नकारने के लिए नहीं है, बल्कि उस प्रवृत्ति को चुनौती देने के लिए है जिसमें हम भौतिक प्रगति के साधनों की तुलना में अनुष्ठानों और प्रतीकों पर अत्यधिक ऊर्जा और धन खर्च करते हैं।  

मानव इतिहास ने बार-बार दिखाया है कि जब सिर (तर्क और ज्ञान) और हृदय (नैतिकता और आस्था) के बीच संतुलन बिगड़ता है, तो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं:  

केवल सिर: ऐसा समाज जो पूरी तरह से तर्क और भौतिकवाद पर निर्भर हो सकता है, वह भावनात्मक रूप से ठंडा और नैतिक रूप से दिशाहीन हो जाता है। यह मानव मन को एक मशीन में बदल देता है।  

केवल हृदय: ऐसा समाज जो केवल रूढ़िवादी आस्था पर निर्भर करे, वह नवाचार, परिवर्तन और बाहरी दुनिया की चुनौतियों का सामना करने में असमर्थ हो जाता है, जिससे देश पीछे रह जाता है।  

एक मजबूत राष्ट्र तब बनता है जब एक वैज्ञानिक अपने ज्ञान का उपयोग मानवता के कल्याण के लिए करता है, और एक आस्थावान व्यक्ति अपनी नैतिकता का उपयोग समाज को जोड़ने में करता है। सच्चा राष्ट्र निर्माण तब होता है जब स्कूल हमें उड़ना सिखाते हैं, जबकि मंदिर हमें बताते हैं कि कहाँ उतरना चाहिए।  

निष्कर्ष  

यह विचार कि 'स्कूलों से देश बनता है, मंदिरों से नहीं', एक शक्तिशाली आह्वान है कि हम अपने बच्चों को उस ज्ञान से लैस करें जो उन्हें 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाए। यह हमें याद दिलाता है कि शिक्षा में निवेश करना किसी भी राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य होता है।  

हालांकि, यह अंततः मानव प्रकृति को स्वीकार करने की बात है कि हमें केवल भौतिक विकास नहीं चाहिए; हमें अर्थ भी चाहिए। एक राष्ट्र ईंट और गारे से नहीं, बल्कि अपने नागरिकों की सामूहिक चेतना से बनता है। हमें ऐसे नागरिक चाहिए जो तर्क से सोचें और करुणा से कार्य करें।  

इसलिए, सबसे सफल राष्ट्र वह होगा जो समझेगा कि स्कूल उस शक्ति का निर्माण करते हैं जिसकी आवश्यकता राष्ट्र को होती है, जबकि मंदिर उस विवेक का निर्माण करते हैं जिसका उपयोग उस शक्ति को मानवता की सेवा में लगाने के लिए किया जाना चाहिए। हमें दोनों की आवश्यकता है, लेकिन इस समय यात्री का संदेश शायद यही है कि संतुलन ज्ञान की ओर झुकने की जरूरत महसूस कराता है ताकि हम भविष्य की दौड़ में पीछे न रहें।

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